Sunday 21 October 2018

जात बाहर


यूं कहने को तो वो मेरी छोटी बहन थी,पर उसने मुझे कभी बड़ी दीदी की कमी महसूस नहीं होने दी। मेरे और छोटी के बीच वो हमेशा मिस राईट ही रही। उसका केवल नाम ही ’छूटन‘ था पर वास्तव में वो सबकी दादी थी। उसने कभी इच्छाओं को मूल्यों पर हावी नहीं होने दिया। हमारे बीच वो मम्मी पापा के प्रतिनिधि के रुप में जानी जाती थी।

पापा की ट्रान्सफर वाली नौकरी में कब शहर,स्कूल बदलते बदलते हम बड़े हुऐ, खुद ही नहीं जान पाए। बचपन के झगड़ो में हमें कभी यह अहसास ही नहीं हुआ कि हम भाई बहनों का यह साथ जिन्दगी का बहुत छोटा हिस्सा है।

हमने कभी यह नहीं सोचा था कि वो एक रात चुपचाप हमेशा हमेशा के लिए घर छोड़ कर चली जाऐगी। वो शाम में जिन्दगी में कभी नहीं भूल सकता। पापा कमरे में टीवी पर समाचार देख रहे थे। उन्हे शायद नहीं पता था कि सारे जरुरी समाचार टीवी पर नही मिलते। रात को आठ बजे करीब पापा ने टीवी से नजर उठा कर घड़ी को देखा था। इसका मतलब यह होता है कि अब वे बेबी के आने की आवाज माने उसकी लूना के रुकने की आवाज,उसका खास तरीके से दरवाजे को थोड़ा जोर से दो बार बजाना। वो कभी डोरबैल नहीं बजाती थी, जबकि विक्की आते ही एक लम्बी बैल बजाती थी। ऐसी बहुत सी आवाजों में से कोई भी एक आवाज सुनाई दे जाने के बाद ही पापा अपना कुछ अगला काम शुरु करते थे। मसलन घूमने निकल जाना या चाय के लिए कहना या कुछ और ....पर उस दिन ऐसी कोई आवाज नहीं हुई। उन्हे थोड़ी चिन्ता होने लगी थी। ऐसे में अक्सर मैं कुछ ऊटपटांग मलहम रुपी वाक्य बोल देता था, जिस पर बाद मे मुझे खुद ही झेंप होती थी। मैंने अपने आप को नियन्त्रित ही रखा।

मुझे पता था पापा अभी दरवाजा खोल कर बालकनी से दूर गली के नुक्कड़ पर लगी ट्यूबलाईट की धुन्धली सी रोशनी में गुजरनेवाले सायों को देखते रहेंगे। इतनी दूर अनजान सायों के बीच भी वे हम में से किसी को तुरन्त ही पहचान लेते है।

बचपन में सोचा करता था कि क्या उनके पास कोई शक्तिशाली दूरबीन है। मैने बचपन मे कई बार उनको दूरबीन से हमें देखते हुऐ रंगे हाथों पकड़ने की कोशिश की थी। पर मैं कभी सफल नहीं हो पाया। मुझे लगता था कि वे अपनी इस दूरबीन से मुझे भी अपनी ओर बढते हुऐ देख लेते हैं और मेरे आने से पहले ही उसे कहीं छुपा देते हैं।

जैसे ही पापा ने बाहर जाने के लिऐ दरवाजा खोला सामने छूटन के बाॅयफ्रैड विक्रम के दो दोस्त खड़े थे। ये दोंनो अपने कुछ साहित्य और पत्रकारिता के काम पर पापा से राय लेने कभी कभार आया करते थे। मुझे याद है पापा ने उनको देखते ही भीतर आने को कहा था, वे थोड़ा हिचकिचा कर भीतर आऐ.... ऐसा लगा जैसे वे दरवाजे से ही लौट जाना चाह रहे थे। पापा की एक दो कोशिश के बाद भी बातचीत कोई सिरा नहीं पकड़ पा रही थी। शायद वे कुछ और बातचीत करना ही नहीं चाह रहे थे और न ही उन्होंने छूटन के बारे में कुछ पूछा था। ऐसी ही कुछ अजीब सी चुप्पी में एक ने कहा -
- अंकल हम तो आपके लिए एक पत्र लाऐ थे।
- अच्छा कुछ नया लिखा है क्या ?
- नहीं ......नहीं ......हम रुपाली (छूटन का औपचारिक नाम) का पत्र लाऐ थे।
- रु.......पा.........ली

यह पत्र रफ पेज की सादा साईड पर लिखा गया था। कागज के आकार को देख कर लग रहा था, पत्र संक्षिप्त था। मुझे याद है पत्र पढते पढते पापा का चेहरा कुछ अजीब सा विकृत हो गया था। छोटे से पत्र को पढने में उन्हें जरुरत से ज्यादा समय लग रहा था।
जीवन में कोई कितना भी आशावादी क्यों न हो कई बार हम ऐसे मोड़ पर पहुंचते हैं जहां से आगे कोई रास्ता नजर नहीं आता । वे स्वंय को ऐसे ही किसी डेड ऐण्ड पर खडा पा रहे थे। चारों तरफ वीरान रेगिस्तान में पसरी अमावस्या की रात सा अधेंरा फैल रहा था । शायद इस डेड ऐण्ड पर उनको समझ नही आ रहा था कि इसके बाद किसको क्या कहें।

मैंने आगे बढ कर पत्र उनके हाथ से लेना चाहा लेकिन उन्होने लगभग कागज के फटने की हद तक उसे जोर से पकड़े रखा। उनको इस अधेंरे में लगा छूटन ओर उनके बीच बस यही एक तार बच गया है वे इसको खोना नहीं चाहते थे।

- पापा!!!!!!......मैने जोर से बोला तब छोडा़ ।
पत्र में साफ लिखा था -
"पापा "
विक्रम और मैंने आज शादी कर ली है।
मैं बहुत खुश हूॅं। मैं और इन्तजार नहीं कर सकती थी। कम से कम इन हालातों में तो बिलकुल संभव नहीं रह गया था। जिस प्रकार विक्रम को लेकर घर में आऐ दिन जो तनाव बन रहे थे। जिस के साथ मेरा भविष्य जुड़ा हो, जो मेरे लिए इस शहर में रह रहा हो। उससे दूरी बना कर रखना मेरे लिए संभव नहीं था।
विक्की के रिश्ते, ताउजी की लड़कियों की शादी, भाभी की प्रेगनेन्सी मुझे भी इन सब की उतनी ही चिन्ता है, लेकिन एक की जिन्दगी के लिए दूसरे की जिन्दगी को स्थगित नहीं किया जा सकता।
मेरी चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है।"

इस के बाद घर का माहौल वैसा ही हो गया था जैसा होने की उम्मीद की जा सकती थी। पापा उन लड़को को इस बात के लिए राजी करने की मिन्नतै कर रहे थे वे उनको भी साथ ले जाऐ या वे एक बार छूटन को वापस घर ले आऐ।
- वो अब अपने घर ही है अंकल। कह कर वे लोग अपनी मोटरसाईकल से निकल गए।

वो शायद पहली रात थी जब हमारे यहां खाना नहीं बना। पापा बिस्तर पर ऐसे बैठे थे जैसे गांव के खेत में बाबा थक कर किसी नीमड़े की छांव में बैठ जाया करते थे। उनके चेहरे पर जेठ की चिलचिलाती तेज धूप का प्रतिबिम्ब तब भी महसूस होता था। उनके चेहरे और पसीने से भीगी देह से टकरा टकरा कर हवाऐं उनकी थकान को गला देती थी। पापा ने आधा गिलास पानी पिया था, पर उनके होंठ और गला अब भी सूखे हुये लग रहे थे।

बरसों शहरों में भटकने के बाद भी मुझे लगता है हम बुनियादी रुप से खेतीहर लोग ही हैं। अथक भागदौड़ के बाद भी वो सूकून नहीं मिलता जो रात में मां की दी हुई साग रोटी खाने के बाद या आंगण में पड़े ठण्डे बिस्तरों पर सोने पर मिलता था। गडाल से आती बाबा के माळा फेरने की आवाज सुनते सुनते पता नहीं कब नींद आ जाती थी।
"थै जाणौ रघनाथ,
हम तो कच्छ जाणे नहीं।
थै जाणौ दिनां रा नाथ,
हम तो कच्छ जाणे नहीं।
किशन कहै दोय घड़ी,
मथरा मे रहो।
किशन कहै...."

यह सब पापा के लिये अप्रत्याशित था। अक्सर काफी दूर की चीजें उनको दिख जाया करती थी पर इस बार ऐसा नहीं था, बचपन की भाषा में कहूॅं तो अब मैं जान गया था कि पापा के पास कोई दूरबीन नहीं है, अगर है भी तो अब हम उसकी रेन्ज से बहुत बाहर आ गऐ थे।

2.
कितना भी तेज तूफान हो, धीरे धीरे लहरें शांत होने लगती है । शादी के छ: माह बाद छूटन को पहली बार एक आयोजन में दिखे थे पापा । अपने एक पत्रकार साथी की सेवानिवृत्त होने का आयोजन था। पीछे की पंक्ति मे बैठ कर जल्दी निकलने के उद्देश्य से शायद सबसे पहले ही खाने की प्लेट ले ली थी। वही हमेशा की तरह थोडी सी दाल और दो चपाती ली हुयी थी। जल्दबाजी मे उनकी दाल प्लेट मे थोडी फैल भी गयी थी। ऐसा कभी होता नहीं है उनकी थाली में ।

सामान्यत उन्होंने आना जाना बहुत कम कर दिया था। यह उनका स्वभाव भी रहा है। जहां भी खुद को अनचाहा महसूस करते तो खुद ही कोई बहाना बना कर बाहर हो जाते ।
विक्रम बता रहा था कि कुछ लौगो ने तो कहना भी शुरू कर दिया था कि ऐसे तो शर्माजी इतने बडे पत्रकार बनते फिरते थे पर जब अपनी बेटी की बारी आयी तो वही दकियानूसी बाप निकले । आखिर बेटी को भाग कर शादी करनी पड़ी।

जो लोग पापा को कभी काम मे नहीं हरा पाऐ । उनको एक मौका मिल गया । वैसे उनको हराना बहुत आसान होता था, बल्कि दूसरे का सहयोग करने की ऐसी प्रवृति थी की एक सीमा बाद खुद ही खुद को हराने मे सहयोग करने लगते थे।

यह सही था कि पिताजी कुछ अवसाद मे भी चले गये थे ।

कुछ माह बाद उनको हमारे जाती समाज में भी जात बाहर कर दिया गया था । छूटन को तो यह बात काफी बाद मे पता चली दरअसल उनको जात बाहर करने से पहले बेटी और समाज मे से एक को चुनने का मौका दिया गया था।

समाज के पंच घर आऐ थे। खैनी खाते हुवे डालूराम जी बोले परिवार एक वटवृक्ष है। एट डाल टूट कर अलग होती है तो बहुत तकलीफ होती है। आज हमारे परिवार की बेटी जात बाहर शादी करगी तो हमारी ओर बेटीयों का क्या होगा ? भाग कर शादी की है, परिवार पर कलंक लग गया। अच्छा रहेगा ऐसी औलाद से तू भी रिशता तोड़ ले। हम पंचायत को समझा कर छूटन के अलावा बाकी परिवार को जात बाहर नही करने देगें। पापा बड़े भाईयों की बात सुनते रहे, आखिर में बोले भाईसाब कोई खुद का क्या एक हाथ काट सकता है। अब दूर्दिन आऐंगे तो सब भुगतगें छूटन को कैसे अकेला छोड़ दूं।
ताराराम जी बहुत नाराज हुवे एक तो तेरे को समझाने के चक्कर में इतना भाड़ा खाया। अब जात बाहर हो जाऐ तो हमारे पास रोने को मत आना। सम्भाल लैना फिर बाकी बच्चों के ब्याह सगपन।

कुण्डीया समाज ने एक बड़ा मैला करके विधिवत घोषणा करके परिवार को जात बाहर कर दिया। पापा के भाई लौग रिश्ता तोड़ने मे सबसे आगे रहे।

वैसेे तो जात पात जैसे बन्धनो की उन्होंने अपने जीवन मे कभी परवाह नहीं की थी । पर इसका असली मतलब दादीमां की मृत्यु पर समझ में आया।

अपने स्वभाव के अनुसार वे पहली बस से ही गांव पहुँच गये थे। कहते है जितनी देर वे घर मे रहे थे समाज और सगे भाईयों मे से एक भी जना घर मे नहीं घुसा था । अनचाहे होने के बावजूद शायद वह पहली बार ऐसा हुवा होगा जब वो किसी जगह इतना रूके थे।

मां की पार्थिव देह को औरों के भरोसे छोड़ के आना बहुत कठिन रहा होगा उनके लिऐ, पर जीवन्तपर्यत उन्होंने हमेशा सहयोग किया था । कौन बेटा होगा जो अपनी मां के ओसर को बिगाडे़गा ।

वे अपने सारे आंसू पी जाते थे। इससे उनका हृदय बहुत विशाल हो गया होगा। अन्दर जैसे कोई आसूंओ की झील रही होगी।

घर आने पर मन की शान्ति के लिऐ उन्होने, हांलाकि मां की देह तो नहीं थी पर उनकी एक तस्वीर के साथ पहली बार किसी पण्डित को बुला कर गीता पाठ के साथ शोक सभा की थी । शायद वे ऐसा कुछ करना चाह रहे थे जो मां की रुचि के अनुकूल हो ।

उस समय पहली बार छूटन शादी के बाद उनके सामने पड़ी थी । उसके जैसे आसूंओ से समझ गये थे कि यह केवल दादी के शोक मे नहीं है। उसके आंसूओ को बिना कुछ कहे गले लगा लिया था। पिता के फुटबॉल के मैदान जितने बड़े हृदय मे हमेशा सकून की सांस लेने की इफरात जगह रहती थी ।
- राजेश भारद्वाज

No comments:

Post a Comment

द स्टारी नाईट और सुशांत सिंह राजपूत 14 जून को जब सुशांत सिंह राजपूत हमारे बीच से अचानक नाराज या क्षुब्ध हो कर चले गए। हम सब उस दुनिया ...