Sunday 14 October 2018

नज़मा का शौहर


बीकानेर से चले हुवै करीब दो घंटे से तो जायदा ही हो गये थे ! जून की गर्मी मे इस कच्चे रस्ते एक आध आकडों के अलावा कुछ नजर नहीं आ रहा था । अभी तक सोनपालसर गाँव का कोई नमो निशान तक न था ! मेने सोचा था डामर रोड छूटने पर जल्दी ही गाँव आ जायेगा ! संस्था की पुराणी जीप कैसे इन धोरो में चल लेती है यह भी कोई काम आश्चर्य न था मेरे लिए !
– क्या हुवा शिवजी आया नहीं आपका सोनपालसर ?
– अरे सर, दूर तो इतना नहीं पर कोई सीधा रास्ता नहीं है !
– लगता है आज रात तो रुकना पड़ेगा, में सोच रहा था आज रात की ट्रेन पकड़ कर सुबह जयपुर निकल जाता !
– आज तो तोडा मुश्किल हो जायेगा !
वैसे तो मेरा काम बस दफ्तरी खाना पूर्ति का था ! आज शिविर देख कर कल ओके रिपोर्ट भेजा देता !
यह एक बालिका शिक्षण शिविर है ! यह एक आवासीय शिविर होता है यहाँ प्राथमिक शिक्षा मे पिछड गयी बालिकाओं के लिए शिक्षा मे उनको दूसरा जीवनदान है। लड़किया छ माह यहाँ रह संस्था द्वारा नियुक्त शिक्षिकाओं से पढती है उसके बाद जिला शिक्षा अधिकारी एक विशेष परीक्षा आयोजित करवा कर उनकी योग्यता जांचते है ! ज्यादातर बालिकाओं को कक्षा पांच पास का प्रमाण पत्र मिल जाता है। जिस लड़की की आगे पड़ने की गुंजाईश होती है ! वो आगे पढ़ने लग जाती है !
मैं जिस एजेंसीज से था उसने कुल ३५ लड़कियों को पढ़ने का फण्ड दिया था ! उसमे यह लोग ७५ लड़कियों को पढ़ा रहे है ! ओर मेरे को यहाँ भेजा गये है यह देखने के लिए की फण्ड का सही से उपयोग तो हो रहा है या नहीं …
पिछले माह के अवलोकन मे 13 वर्षीय नज़मा की गम्भीर खामोशी ने मेरा ध्यान खीचा था । गुलाबी से गौरे रंग आंखों के नीचे स्याह घेरे अलग से नजर आते थे।
समय के साथ इस लड़की मे सबसे ज्यादा परिवर्तन देखने मे आया था । सीखने की एक अलग सी धुन थी इस लड़की में । शिक्षण कार्य मे सबसे आगे थी । हस्तकला मे यह बेहद खूबसूरत चुटीले, परांदे बनाती थी ।
शिक्षिका ने बताया की – शिविर से एक साल पहले इसकी अम्मी का इंतकाल हो गया था । अकेले अब्बा को जवान होती बेटी बोझ लगने लगी । गांव के कुछ लौगो का तो कहना है कि पैसों के लालच मे लड़की का निकाह एक अधेड उम्र के आदमी से कर दिया । कुछ ही घंटो के निकाह मे नज़मा की गांव से विदाई हो गयी। उसके पक्ष मे कोई न था, साथ मे खेलनेवाली सहेलियां ज्यादा कुछ विरोध दर्ज नहीं करा पायी ।
ससुराल मे असहनीय हालत बनने पर एक रात मौका पा कर नज़मा अपने शौहर के यहाँ से भाग निकली । पूरी रात सुनसान खेतों मे चलती हुयी सुबह अधमरी हालत मे दूसरे गांव मे रह रही अपनी नानी के घर के आ गयी। नानी बूढ्ढी तो जरुर थी पर उसके रहते न तो नज़मा के पति की हिम्मत पडी ना ही अब्बा आने का हौसला जुटा पाया ।
वहाँ से न जाने क्या सोच कर नानी ने इसे बालिका शिक्षण शिविर भेज दिया । उस दिन मे वहीं था, आज भी याद है उनके शब्द – मेरी सासों का क्या भरोसा साब, मै कब तक दांत भींच कर इनको रोके रखूंगी, मेरे बाद इस बच्ची क्या होगा…या अल्लाह थोड़ी सी और मौहल्लत देदे..
सुना है नज़मा का शौहर अब शिविर खत्म होने का इतंजार कर रहा है । पिछले माह उसने नज़मा को सुर्ख लाल रंग का परांदा ला कर दिया था । जिसे शिविर की सब लडकियों ने तो बहुत पंसद किया पर नज़मा उसको कभी नहीं पहनती ।

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